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हिसाब कौन देगा?

smriti
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काँची कामकोटि पीठ के शंकराचार्य स्वामी जयेन्द्र सरस्वती का ९ साल पुराने हत्या के एक मुक़दमे से जिसे जयललिता सरकार द्वारा २००४ में बनी सोनिया गांधी के नेतृत्व वाली यू. पी.ऐ. सरकार को भेंट स्वरूप साजिशन लगाया और अर्पित किया गया था ,से बाइज्जत बरी होना सुकून देने के साथ-२ गम्भीर सवाल भी खड़े करता है.तमिलनाडु कि राजनीति आरम्भ से ही दुर्भावना और व्यक्तिवाद के इर्द-गिर्द घूमती रही है..वहाँ अपने विरोधियों को सबक सीखने के घटिया तरीके हमेशा से आजमाए जाते रहें हैं.कहा जाता है कि जनता कि याद दाश्त कमजोर होती है और लोग जल्दी ही पुरानी बातों को भूल जाते हैं.यहाँ इस प्रसंग पर कुछ पुरानी बातों का जिक्र मौंजू होगा.१९९८ में बनी अटल बिहारी सरकार को वर्ष भर बाद समर्थन वापस लेकर गिराने वाली जयललिता ही थीं ,वजह था उन पर चल रहे ९० से ज्यादा भ्रष्टाचार के मुकद्दमों में उनके मन-मुताबिक रियायतें न मिलना.१९९९ में पुनः बी.जे.पी. सरकार बनी और द्रुमुक ने इस सरकार को अपना समर्थन दिया ,२००१ में जयललिता कांग्रेस के साथ विधान सभा चुनाव में उतरीं और राज्य में सरकार बनाने में कामयाब रहीं.२००३ में द्रुमुक ने अपना समर्थन अटल सरकार से वापस ले लिया .२००४ का लोकसभा चुनाव जयललिता ने पुनः एक बार बी.जे.पी. के साथ मिलकर लड़ा और बुरी तरह से पराजित हुईं ,तमिलनाडु कि ३९ कि ३९ सीटें द्रुमुक के मोर्चे के पास चली गयीं …जयललिता को लगता था कि राज्य कि हिंदुत्व वादी शक्तियों ने उनका साथ नहीं दिया,मई २००४ में द्रुमुक के समर्थन से केंद्र में यू.पी.ऐ. कि सरकार बनी अब जयललिता अकेली हो चुकी थें.उन्हें अपने खिलाफ चल रहे तमाम मामलों में केंद्र का वरद-हस्त चाहिए था .इसी बीच एक तमिल पत्रिका नक्कीरन जो कि द्रविड़ आंदोलन से जुडी थी और अपने हिंदुत्व विरोध के लिए जानी जाती है उसने शंकर रमन हत्याकांड में काँची कामकोटि पीठ के शंकराचार्य और उनके कनिष्ठ स्वामी विजयेंद्र का हाथ है, का सनसनी खेज खुलासा किया जिसमे तथ्य गायब थे और पीत पत्रकारिता ज्यादा थी,जयललिता यू.पी.ऐ.के शीर्ष नेतृत्व का जो समर्थन चाहती थीं उसे पाने का उन्हें ये अवसर लगा .आग में घी डाला राज्य कि ईसाई मिशनरियों जो १९९७ में राज्य में बने धर्मान्तरण कानून से त्रस्त थे और काँची कामकोटि कि धार्मिक गतिविधियां भी उनके रास्ते कि बाधा थीं,ये एक सुअवसर था प्रायोजित मीडिया के सहारे राज्य में एक घिनौना प्रचार आरम्भ हो गया. १५०० वर्ष पुरानी काँची कामकोटि पीठ जिसके शंकराचार्य अन्य शंकराचार्यों में प्रमुख होते हैं और हिन्दू धर्म का मुख्य व्यवस्था केंद्र यही पीठ है.जिस पर गजनवी, गौरी और औरंगजेब भी आक्रमण नहीं कर पाये थे ,जिस पीठ पर ब्रिटिश शासन के दरम्यान और रामास्वामी पेरियार के हिंदी,हिन्दू,आर्य,ब्राह्मण और उत्तर भारतीय विरोध के आंदोलन में भी आंच नहीं आयी थी वो विवादों के घेरे में आ गया.ये एक घिनोनी पत्रकारिता और राजनीती थी, लेकिन अब स्वामी जयेन्द्र सरस्वती के पक्ष में फैसला आने के बाद सब कुछ साफ़ हो गया है .वो मीडिया खामोश है जिसने शंकराचार्य का नारको टेस्ट चटपटे तरीके से सारी दुनिया को परोसा था .सोनिया गांधी के नेतृत्व में बनी केंद्र सरकार जिस तरीके से हिंदुत्व और हिन्दू धर्माचार्यों के खिलाफ अक्सर खड़ी नजर आती है,तहलका और नक्कीरन जैसी पत्रिकायों के सहारे अपना एजेंडा आगे बढाती है, उसे भी ये एक कड़वा सबक है…और सबक राष्ट्रवादी-सांस्कृतिक शक्तियों के लिए भी है कि वो एक हो जाएँ .

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