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बधाई हो !भारत को आधिकारिक रूप से एक समाजवादी सेकुलर देश घोषित हुए ३७ साल बीत गए,ये नवम्बर १९७६ का महीना था ,तमाम सरकार विरोधी या तो जेल कि हवा खा रहे थे या पुलिस की लाठियां खा रहे थे ,संसद का ५ साल का कार्यकाल ख़त्म हो चुका था,वो राष्ट्रपति के एक आदेश से तब भी जिन्दा थी. …देश में आपातकाल लागू था,या कहिये कि एक माँ -बेटे कि सल्तनत थी,तानाशाहों ने तय किया कि चलो भारत को एक समाजवादी,धर्मनिरपेक्ष राज्य बनाया जाय ,और कमाल देखिये जो काम नेहरू,राजेंद्र प्रसाद,अम्बेदकर ,मौलाना आजाद और सरदार पटेल जैसे महानुभावों को नहीं सूझा उसे इंदिरा मैडम ने कर दिखाया,एक ऐसी संसद जिसका कार्यकाल ख़त्म हो चुका था और आपातकालीन उपबंधों से जिन्दा थी,उसने संविधान में एक संशोधन जिसे ४२-वां संविधान संशोधन विधेयक कहा जाता है, पास किया और भारत घोषित रूप से एक समाजवादी धर्मनिरपेक्ष राज्य हो गया जो कि पहले केवल लोकतान्त्रिक गणराज्य था वो अब समाजवादी धर्मनिरपेक्ष लोकतान्त्रिक गणराज्य हो गया.वो भारत जहाँ १९३७ में अंग्रेजों ने मुस्लिम परसनल लॉ (शरीअत ऍप्लिकेशन लॉ)-१९३७ लागू किया था,और अब तक लागू है जो कानून साफ़ साफ़ यह कहता है राज्य का कानून शरिया में दखल नहीं दे सकता… वो राज्य बिना इस कानून को ख़ारिज किये हुए और शरीअत को मान्यता देते हुए न जाने कौन सी तरकीब से धर्मनिरपेक्ष हो गया आज तक समझ नहीं आया है,जो कानून और संविधान अपने नागरिकों को खालिस धर्म कि निगाह से देखता हो और ख़ास मजहबी कानूनों को वैधता प्रदान करता हो और बाकी के धार्मिक मामलों में गाहे-बगाहे दखलंदाजी करता हो वो धर्मनिरपेक्ष कैसे हो गया?जब हम संविधान कि बात करतें हैं तो एक चीज बड़ी साफ़ है कि इसे पश्चिमी राजनैतिक व्यवस्था से उधार लिया गया है,जहाँ सेकुलर होने के मायने हैं कि राज्य का कोई धर्म नहीं होगा,उसके कानून सबके लिए एक समान होंगे और धर्म का हस्तक्षेप राज्य में नहीं होगा ,कुल मिला कर धर्म को अपनी हद में रहना चाहिए. इसका यही मतलब है.इसकी पृष्ठभूमि में मध्यकाल में चर्च की यूरोप के राज्यों की शासन व्यवस्था में बढ़ती दखलंदाजी थी.वहीँ इसके उलट भारत कि नेहरू-इंदिरा मार्का धर्मनिरपेक्षता एक तरफ तो अपनी एक आबादी के लिए अनुग्रही होकर उसके मजहबी मध्ययुगीन कानूनों को वैधता देती है,तुष्टिकरण करती है…वहीँ बाकी आबादी के धार्मिक कानूनों के साथ मनचाहा सलूक करती है और डंडा चलाती है,जिसका सबूत है १९५५ का हिन्दू मैरिज एक्ट और हिन्दू कोड बिल(1956). ..बजाय इसके की वो सबके लिए एक कानून बनाये, ये ख़ास किस्म की धर्मनिरपेक्षता अपने मूल चरित्र में दुराग्रही और दमनात्मक है ये हर स्तर पर तुष्टिकरण को बढ़ावा देती है ,मजहबी उन्माद को पालती पोसती है वहीँ दूसरी तरफ शाहबानो(शाहबानो मामला १९८६) जैसी गरीब और मजलूम औरतों को उनके हाल पर छोड़ देती है और उसके बाद भी इन्साफ का परचम उठा कर चलती है ,इससे बड़ा बहुरुपिआ पन देखे जाने कि मिसाल कही नहीं मिलेगी…और इसके बाद भी अपने प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष होने का दावा करती है ,ये एक छल के सिवाय कुछ नहीं है. ये इंडिया इज इंदिरा,इंदिरा इज इंडिया का नारा देने वाले मित्रों का सुविधाभोगी वेश-विन्यास है जिसे कई प्रकार से किया जा सकता है लेकिन इससे चार कदम आगे भारत का समाजवादी-वामपंथी आंदोलन है जो इस धर्मनिरपेक्षता के नेहरू-इंदिरा मार्का संस्करण को, मार्क्स के समाजवाद को भूल कर,बड़ी बुलंदी से थामे है यही हाल लोहिया और जेपी के शिष्यों का है.जहाँ भारत कि आर्थिक नीतियाँ समाजवाद की धज्जियाँ उड़ाने के बाद अब पूंजीवाद की भी चिंदी चिंदी कर चुकीं हैं और सारे स्थापित जनतांत्रिक वैश्विक मूल्यों को चाहे वो पूंजीवादी हों या समाजवादी अथवा मिश्रित, को किनारे लगा के राजतंत्रीय और सामंती लूट तंत्र पर आधारित हो चुकी हों ,जहाँ अब केवल कहने के लिए नहीं बल्कि असलियत में केवल दो धर्म के लोग अमीर और गरीब बचे हों और गरीबों का धर्म हो की वो अमीरी का तमाशा देखें २००-२०० करोड़ में होने वाली जन्मदिन पार्टियां देखें,नंगा होकर नाचता बॉलीवुड देखें, बिकाऊ बल्ला देखें और…. खींसे नपोरें,ताली बजाएं! वहाँ अगर सारी बहस इस ख़ास नेहरू-इंदिरा मार्का धर्मनिरपेक्षता पर सिमट जाये तो यकीन मानिये की गरीबी,बेकारी ,कुप्रबंधन ,जहालत और भ्रष्टाचार का परचम इस ख़ास किस्म की धर्मनिरपेक्षता और राजतंत्रीय सामंती समाजवादी अर्थतंत्र के तले खूब ऊँचे से लहराता रहेगा .ऐसे नेहरू-इंदिरा मार्का सेकुलरिज्म,समाजवाद और ऐसी जनवादी प्रगतिशीलता को हरा सलाम!
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